Sunday, December 29, 2019

पर ना जाने क्यूँ ?



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मैने सब कुछ 
सही किया
पर ना जाने क्यूँ 
सब ग़लत हो गया ?

मैने सपनों को
अमृत अमृत सींचा
पर ना जाने क्यूँ
सब मृत हो गया ?

मैने अरमानों को
परबत परबत पाला
पर ना जाने क्यूँ 
सब गर्त हो गया ?
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Tuesday, December 3, 2019

ये ज़िंदगी है...




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कभी आँखों से तूफान बन के
बरसती है,
कभी साँसों में आग बन के
पिघलती है,
कभी हृदय में दर्द का ज्वार बन के
उमड़ती है,

ये ज़िंदगी है...
सबसे एक बार ज़रूर मिलती है I
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Sunday, November 17, 2019

वो कुछ कह भी दे तो क्या...





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वो कुछ कह भी दे तो क्या,

वो कुछ शह भी दे तो क्या,


अब तो शाम हो गयी ज़िंदगी की,


वो अपने दिल में जगह भी दे तो क्या I
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Monday, November 4, 2019

ये नींव के पत्थर !


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चित्र साभार :https://littleindia.com/keralite-nris-turn-towards-posh-old-age-homes-parents/

सोचता हूँ अक्सर,

अंधेरे में रहना,


गुमनामी पिरोना,


अकेलापन सहेजना,


हर कम्पन सहना,


फिर भी कुछ ना कहना,


रहते हमेशा दबकर,


सहते सबकुछ हंस कर,


सोचता हूँ अक्सर,


के किस मिट्टी के होते हैं,


ये नींव के पत्थर !


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Friday, October 18, 2019

उम्मीद के पंखों पे सपनों का भार...




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उम्मीद के पंखों पे,
सपनों का भार I

वो लुढ़कती किस्मत,
वो मिलती हार I

वो रंगों की रौनक,
वो रौशनी की फुहार,
बस मुझको हीं क्यूँ,
करवाते हैं इतना इंतेज़ार?

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Tuesday, October 8, 2019

तेरे दम से जीवन की अभिव्यंजना...





चित्र शीर्षक : देवी दुर्गा, शक्ति की अभिव्यक्ति
चित्र साभार : श्रीमती सुचेता प्रियाबादिनी का फेसबुक पन्ना
चित्र अधिकार : सुचेता प्रियाबादिनी



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तू पाखंड कुचे
तू उद्दंड भच्छे
तू ब्रह्मांड
का आनंद रचे


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तू उत्सव क्रीड़ा,

तू प्रसव पीड़ा,

वो हरदम हारा,

जो तुझसे है भिड़ा I


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तू आरंभ की मौलिक गर्जना,

तू प्रारंभ की मौलिक सर्जना,

तू जीवन का हँसना रोना,

तेरे दम से जीवन की अभिव्यंजना I


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पश्चलिपि: यह रचना श्रीमती सुचेता प्रियाबादिनी की चित्र कृति  "देवी दुर्गा, शक्ति की अभिव्यक्ति" से प्रेरित है I मैने जिस विश्वविद्यालय से स्नातकोतर( प्रबंधन) की पढ़ाई की है, श्रीमती सुचेता प्रियाबादिनी वहाँ निदेशक पद पे कार्यरत है I इस तरह से मेरा रिश्ता उनसे गुरु शिष्य का है और इसी रिश्ते के आधार पर मैं उनकी चित्राकृतियों को शब्दों में आकर देने का साहस कर पाता हूँ I चित्राकृति को शाब्दिक स्वरूप देते समय मेरा प्रयास चित्रकार के कलात्मक मन को पढ़ने का होता है, लेकिन मैं अपने प्रयास में कितना सफल हो पता हूँ,ये तो पाठकों की प्रतिक्रिया पर निर्भर करता है I


Friday, October 4, 2019

दो क़दमों से भागते सपने...



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दो क़दमों से भागते सपने,
छूना चाहते हैं आकाश,
होना चाहते हैं पंख I

दो तालों में उलझी धड़कनें ,
बुनना चाहती हैं प्रबल प्रयास ,
फूंकना चाहती हैं विजय शंख I


दो आँखों में चंदा तारे,
मंज़िल को  दे रहे पुकारे ,
बहुत देर तक राह तकी,
अब सोते हैं हम,
थके हारे ...
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Monday, September 30, 2019

सुनो एक कहानी सुनाते हैं...



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सुनो एक कहानी सुनाते हैं,
कुछ आँखों का पानी सुनाते
हैं,
कुछ दुनिया ये फानी सुनाते
हैं I

कुछ आदम हौआ की जवानी
सुनाते हैं,
कुछ उनके औलादों की बिखरी ज़िंदगानी
सुनाते हैं I

कुछ युद्ध की वीरानी सुनाते हैं ,
कुछ बुद्ध की ज़ुबानी सुनाते हैं I

कुछ राधा रूमानी सुनाते हैं,
कुछ मीरा दीवानी सुनाते हैं I

कुछ बीती डगर सुहानी सुनाते हैं,
कुछ आती सहर रूहानी सुनाते हैं,
सुनो एक कहानी सुनाते हैं...
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Thursday, September 26, 2019

चलो इस नही को हीं हां करते हैं...



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चलो इस नहीं को हीं हां करते हैं,
जो थोड़ा है... उसी को जहाँ कहते हैं I

माना उनके पास तारे हैं,
लेकिन चलो हम अंगरों 
से हीं निबाह करते हैं
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Monday, September 23, 2019

किसी को क्या मालूम...




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किसी को क्या मालूम,
हम आँखों में क्या छुपाए बैठे हैं ?

उससे बिछूड़ने का गम, उसकी यादों का शबनम,
और टूटे ख्वाबों के कुछ शीशे गड़ाए बैठे हैं I

किसी को क्या मालूम,
हम आँखों में क्या छुपाए बैठे हैं ?

वो जागती रातों की नींद, वो बिखरी उम्मीद,
और कुछ मुर्दा एहसासों की प्रीत छुपाए बैठे हैं I

किसी को क्या मालूम,
हम आँखों में क्या छुपाए बैठे हैं ?

वो गुज़री हुई हर बात, किस्मत की रूठी रात
और डाँवाडोल अपनी औकात छुपाए बैठे हैं

किसी को क्या मालूम,
हम आँखों में क्या छुपाए बैठे हैं ?
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Friday, September 13, 2019

तेरा चेहरा... मेरा चेहरा !



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चित्र शीर्षक : वी द थ्री सिस्टर्स
चित्र साभार : श्रीमती सुचेता प्रियाबादिनी का फेसबुक पन्ना

चित्र अधिकार : सुचेता प्रियाबादिनी 


तेरा चेहरा... मेरा चेहरा,
इन चेहरों पे छपता मिटता,
एहसासों के क़िस्सों का ककहरा I

तेरा चेहरा... मेरा चेहरा,
इस चेहरों में लुकता छुपता,
आयुष के अंकों का फेरा I

तेरा चेहरा... मेरा चेहरा,
इन चेहरों में मिलता मुस्काता,
मेरे तेरे अंतस का डेरा I

तेरा चेहरा... मेरा चेहरा,
इन चेहरों में हँसता बसता,
पुरखों के आशीषों का पहरा I
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आयुष: उम्र
अंतस : मन

पश्चलिपि: यह रचना श्रीमती सुचेता प्रियाबादिनी के चित्रकारी "वी द थ्री सिस्टर्स " से प्रेरित है I

Saturday, September 7, 2019

महत्व प्रयास का भी है...



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महत्व प्रयास का भी है,
महत्व अभ्यास का भी है I

महत्व यात्रा का भी है,
महत्व रास्ता का भी है I

महत्व केवल मंज़िल चूमने का हीं नही
बल्कि
महत्व मज़िल के करीब तक घूमने का भी है I


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पश्चलिपि : ये कविता चंद्रयान 2 के पूरे समूह को समर्पित है !

Tuesday, September 3, 2019

हमने भगवान का ...




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हमने भगवान का
दो रूप देखा है
तपता सूरज
 और
गीला धूप देखा है I

Monday, September 2, 2019

एक लम्हा जैसे बरसों...





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एक लम्हा जैसे बरसों
के जाल में रुका रुका सा है I 

एक सपना जैसे क़िस्सों के
रूमाल में ढँका ढँका सा है I

एक चंद्र जैसे हिस्सों
के ख्याल में फँसा फँसा सा है I

एक सूरज जैसे किस्मत
के अयाल में धंसा धंसा सा है I

Friday, August 30, 2019

एक ज़माना लगता है...



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एक ज़माना लगता है,
ईट ईट सवरने में I

एक बहाना लगता है,
रेत रेत बिखरने में I

कितनी रातें लगती हैं,
आसमान को तारा तारा करने में I

बस कुछ बातें लगती हैं,
 अरमानों को आवारा कहने में I

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Wednesday, August 21, 2019

ना जाने कितने... आकाश बांधता है आदमी




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एक उम्र में कई...
जनम जीता है आदमी,
जन्नत कम और ना जाने कितने
जहन्नुम जीता है आदमी I

एक साँस में कितने आस,
बांधता है आदमी,
ज़मीनें कम...पर ना जाने कितने,
आकाश बांधता है आदमी I
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Saturday, August 17, 2019

रुकना ज़रूरी है...




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रुकना ज़रूरी है,
चलते जाने के लिए,


बुझना ज़रूरी है,
जलते जाने के लिए ,


ऐसा हमें लगा था,


पर ज़िंदगी मेरी गुलाम
थोड़े ही है...
मेरी हां में हां मिलाते जाने के लिए I

Thursday, August 15, 2019

कभी सोचता हूँ के...




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कभी सोचता हूँ के... 
जो कोई लड़ता हीं नहीं
तो आकाश भी ज़ंज़ीरों में होती,
तो प्रकाश भी पहरों में होता, और
स्वास भी अंगारों से होकर गुज़रता I

कभी सोचता हूँ के... 
जो कोई मरता हीं नही
तो नन्हे क़दमों से
ज़िंदगी कैसे दौड़ती
कोमल होठों पे 
हँसी कैसे तैरती 
और 
मासूम आँखों में
आज़ाद उड़ान कैसे सोती I
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Wednesday, August 14, 2019

खूब चले हम...



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खूब चले हम,
सपनों को भिंचे I

खूब चले हम,
कदमों को खींचे I

खूब चले हम,
राहों को सींचे I

पर फिर भी ना जाने क्यूँ,
हम रह गये पीछे...नीचे !

Saturday, August 10, 2019

बरसों से इंतेज़ार था...



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इस हुंकार का,
इस दहाड़ का,
बरसों से इंतेज़ार था I

मिट्टी के इस आकार का,
सपनों के इस साकार का,
बरसों से इंतेज़ार था I

दूरियों के मिटने का और...
लकीरों के सिमटने का,
बरसों से इंतेज़ार था I

Tuesday, July 9, 2019

तू क्या है ऐ ज़िन्दगी



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तू क्या है ऐ ज़िन्दगी ,
जो मारती  भी है ,
और ज़िंदा भी रखती है ?

तू क्या है ऐ ज़िन्दगी,
जो जगाती भी है,
और उनींदा भी रखती है ?

तू क्या है ऐ ज़िन्दगी ,
जो  डुबोती भी है ,
और परिंदा भी रखती है ?
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Friday, July 5, 2019

हमने देखा है...





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हमने देखा है,

के जितना भी मिलते हैं,

लोगों से ...उतना हीं बदनाम होते हैं I


हमने जब भी ख्वाइश,

की कुछ नाम की,

उतना हीं... गुमनाम होते हैंI


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Saturday, June 29, 2019

ऐसा नहीं है …




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ऐसा नहीं है

के हम चले नहीं हैं,

पाँव के छाले इसकी गवाही देंगे I



ऐसा नही है,

के हम लड़े नहीं है,

जिस्म में धंसे भाले इसकी गवाही देंगे I



और



ऐसा नहीं है

के हम मरे नहीं हैं

मेरी मौत पे रोते 
ये बादल काले इसकी गवाही देंगे I

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Saturday, June 8, 2019

दुनिया अज़ाब है...




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दुनिया अज़ाब है,
दुनिया खराब है,
पर मुझसे छूटे तो I

दुनिया में सब है,
दुनिया में रब हैं,
पर मुझको मिले तो I
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Thursday, May 30, 2019

Renouncing the world at not that ripe age!




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Every now and then, there comes news that 10-12 years old kids receive diksha and become Jain monks. The kids very vivaciously talk about how he/she is ecstatic about their diksha and they also talk about how the materialistic world and life is futile. I don’t think that 10-12 years of age has enough repository of knowledge to deduce that the mundane world is worthless. 

They speak what they have been instilled into their minds.

Though, I am not that erudite on the Jain philosophy, I would like to share that I feel this tradition a bit cruel on part of the children who take diksha at the tender age. I mean what horrendously wrong they found with the world at this tiny age that they say that this world is illusion and real bliss is in becoming a monk. At this age when children cry at the separation from parents while going to hostel, these children get separated from the world. What psychological upheaval they must be going through…I wonder.  The media only reports at the time of the diksha reception that is a gala time with throng, no one cares to read the mind of these kids when they start leading a life in an insulated world. 

If these children are emotionally so strong at this stage that the effect of separation is zilch then hats off to them but what happens to these tender minds when the effect of separation is debilitating.

I am not against the tradition of diksha but at least the diksha recipient should have the experience of boons and banes of body up to an extent where they can themselves decide whether they want to continue with the ways of body or not. And the same is with life. Until there is a substantial amount of experience in the kitty of life, it is kind of unreasonable to tell that worldly life is worthless. The kids should be given a chance to lead a normal life at least till twenty or twenty-five years of age and if after that anyone decides with a mature perception of world to renounce the worldly affairs, then I don’t see any problem with it.

I understand that life is in different layers and spiritualism is one of that. And given the undulating nature of life that entails happiness along with unbearable pain and suffering, spiritualism is the final recourse for a frazzled soul. But to introduce kids as young as ten or twelve is like stunting the natural happiness of human mind and body and replacing it with a distant promised blissful enlightenment.

Receiving Diksha must be solving some issue of humanity but I think that it must be also leaving some issues of a tender mind unresolved and entangled. Despite all the razzmatazz created around the diksha of kids, I fail to feel the same frenzy. The kids should be given a chance to grow a normal life at least till twenty or twenty-five years of age.

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P.S: This post is written with the angle of worldly wisdom so it can miserably fail on the touchstone of spiritual yardsticks.