Sunday, December 29, 2019
Tuesday, December 3, 2019
Sunday, November 17, 2019
Monday, November 4, 2019
Friday, October 18, 2019
Tuesday, October 8, 2019
तेरे दम से जीवन की अभिव्यंजना...
चित्र शीर्षक : देवी दुर्गा, शक्ति की अभिव्यक्ति चित्र साभार : श्रीमती सुचेता प्रियाबादिनी का फेसबुक पन्ना चित्र अधिकार : सुचेता प्रियाबादिनी |
तू पाखंड कुचे
तू उद्दंड भच्छे
तू ब्रह्मांड
का आनंद रचेतू उद्दंड भच्छे
तू ब्रह्मांड
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तू उत्सव क्रीड़ा,
तू प्रसव पीड़ा,
वो हरदम हारा,
जो तुझसे है भिड़ा I
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तू आरंभ की मौलिक गर्जना,
तू प्रारंभ की मौलिक सर्जना,
तू जीवन का हँसना रोना,
तेरे दम से जीवन की अभिव्यंजना I
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पश्चलिपि: यह रचना श्रीमती सुचेता प्रियाबादिनी की चित्र कृति "देवी दुर्गा, शक्ति की अभिव्यक्ति" से प्रेरित है I मैने जिस विश्वविद्यालय से स्नातकोतर( प्रबंधन) की पढ़ाई की है, श्रीमती सुचेता प्रियाबादिनी वहाँ निदेशक पद पे कार्यरत है I इस तरह से मेरा रिश्ता उनसे गुरु शिष्य का है और इसी रिश्ते के आधार पर मैं उनकी चित्राकृतियों को शब्दों में आकर देने का साहस कर पाता हूँ I चित्राकृति को शाब्दिक स्वरूप देते समय मेरा प्रयास चित्रकार के कलात्मक मन को पढ़ने का होता है, लेकिन मैं अपने प्रयास में कितना सफल हो पता हूँ,ये तो पाठकों की प्रतिक्रिया पर निर्भर करता है I
Friday, October 4, 2019
Monday, September 30, 2019
सुनो एक कहानी सुनाते हैं...
सुनो एक कहानी
सुनाते हैं,
कुछ आँखों का पानी सुनाते हैं,
कुछ दुनिया ये फानी सुनाते हैं I
कुछ आदम हौआ की जवानी सुनाते हैं,
कुछ उनके औलादों की बिखरी ज़िंदगानी सुनाते हैं I
कुछ युद्ध की वीरानी सुनाते हैं ,
कुछ बुद्ध की ज़ुबानी सुनाते हैं I
कुछ राधा रूमानी सुनाते हैं,
कुछ मीरा दीवानी सुनाते हैं I
कुछ बीती डगर सुहानी सुनाते हैं,
कुछ आती सहर रूहानी सुनाते हैं,
कुछ आँखों का पानी सुनाते हैं,
कुछ दुनिया ये फानी सुनाते हैं I
कुछ आदम हौआ की जवानी सुनाते हैं,
कुछ उनके औलादों की बिखरी ज़िंदगानी सुनाते हैं I
कुछ युद्ध की वीरानी सुनाते हैं ,
कुछ बुद्ध की ज़ुबानी सुनाते हैं I
कुछ राधा रूमानी सुनाते हैं,
कुछ मीरा दीवानी सुनाते हैं I
कुछ बीती डगर सुहानी सुनाते हैं,
कुछ आती सहर रूहानी सुनाते हैं,
सुनो एक कहानी
सुनाते हैं...
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Thursday, September 26, 2019
Monday, September 23, 2019
किसी को क्या मालूम...
किसी को क्या मालूम,
हम आँखों में क्या छुपाए बैठे हैं ?
उससे बिछूड़ने का गम, उसकी यादों का शबनम,
और टूटे ख्वाबों के कुछ शीशे गड़ाए बैठे हैं I
किसी को क्या मालूम,
हम आँखों में क्या छुपाए बैठे हैं ?
वो जागती रातों की नींद, वो बिखरी उम्मीद,
और कुछ मुर्दा एहसासों की प्रीत छुपाए बैठे हैं I
किसी को क्या मालूम,
हम आँखों में क्या छुपाए बैठे हैं ?
वो गुज़री हुई हर बात, किस्मत की रूठी रात
और डाँवाडोल अपनी औकात छुपाए बैठे हैं
किसी को क्या मालूम,
हम आँखों में क्या छुपाए बैठे हैं ?
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Friday, September 13, 2019
तेरा चेहरा... मेरा चेहरा !
चित्र शीर्षक : वी द थ्री सिस्टर्स चित्र साभार : श्रीमती सुचेता प्रियाबादिनी का फेसबुक पन्ना चित्र अधिकार : सुचेता प्रियाबादिनी |
तेरा चेहरा... मेरा चेहरा,
इन चेहरों पे छपता मिटता,
एहसासों के क़िस्सों का ककहरा I
तेरा चेहरा... मेरा चेहरा,
इस चेहरों में लुकता छुपता,
आयुष के अंकों का फेरा I
तेरा चेहरा... मेरा चेहरा,
इन चेहरों में मिलता मुस्काता,
मेरे तेरे अंतस का डेरा I
तेरा चेहरा... मेरा चेहरा,
इन चेहरों में हँसता बसता,
पुरखों के आशीषों का पहरा I
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आयुष: उम्र
अंतस : मन
पश्चलिपि: यह रचना श्रीमती सुचेता प्रियाबादिनी के चित्रकारी "वी द थ्री सिस्टर्स " से प्रेरित है I
इन चेहरों पे छपता मिटता,
एहसासों के क़िस्सों का ककहरा I
तेरा चेहरा... मेरा चेहरा,
इस चेहरों में लुकता छुपता,
आयुष के अंकों का फेरा I
तेरा चेहरा... मेरा चेहरा,
इन चेहरों में मिलता मुस्काता,
मेरे तेरे अंतस का डेरा I
तेरा चेहरा... मेरा चेहरा,
इन चेहरों में हँसता बसता,
पुरखों के आशीषों का पहरा I
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आयुष: उम्र
अंतस : मन
पश्चलिपि: यह रचना श्रीमती सुचेता प्रियाबादिनी के चित्रकारी "वी द थ्री सिस्टर्स " से प्रेरित है I
Saturday, September 7, 2019
Tuesday, September 3, 2019
Monday, September 2, 2019
Friday, August 30, 2019
Wednesday, August 21, 2019
Saturday, August 17, 2019
Thursday, August 15, 2019
कभी सोचता हूँ के...
Wednesday, August 14, 2019
Saturday, August 10, 2019
बरसों से इंतेज़ार था...
Tuesday, July 9, 2019
Friday, July 5, 2019
Saturday, June 29, 2019
Saturday, June 8, 2019
Thursday, May 30, 2019
Renouncing the world at not that ripe age!
Every now
and then, there comes news that 10-12 years old kids receive diksha and become Jain monks. The kids very vivaciously talk about how he/she is
ecstatic about their diksha and they
also talk about how the materialistic world and life is futile. I don’t think
that 10-12 years of age has enough repository of knowledge to deduce that the
mundane world is worthless.
They speak
what they have been instilled into their minds.
Though, I am
not that erudite on the Jain philosophy,
I would like to share that I feel this tradition a bit cruel on part of the
children who take diksha at the
tender age. I mean what horrendously wrong they found with the world at this
tiny age that they say that this world is illusion and real bliss is in
becoming a monk. At this age when children cry at the separation from parents
while going to hostel, these children get separated from the world. What psychological
upheaval they must be going through…I wonder. The media only reports at the time of the diksha reception that is a gala time
with throng, no one cares to read the mind of these kids when they start
leading a life in an insulated world.
If these
children are emotionally so strong at this stage that the effect of separation
is zilch then hats off to them but what happens to these tender minds when the
effect of separation is debilitating.
I am not
against the tradition of diksha but
at least the diksha recipient should
have the experience of boons and banes of body up to an extent where they can themselves
decide whether they want to continue with the ways of body or not. And the same
is with life. Until there is a substantial amount of experience in the kitty of
life, it is kind of unreasonable to tell that worldly life is worthless. The kids
should be given a chance to lead a normal life at least till twenty or twenty-five
years of age and if after that anyone decides with a mature perception of world
to renounce the worldly affairs, then I don’t see any problem with it.
I understand
that life is in different layers and spiritualism is one of that. And given the
undulating nature of life that entails happiness along with unbearable pain and
suffering, spiritualism is the final recourse for a frazzled soul. But to
introduce kids as young as ten or twelve is like stunting the natural happiness
of human mind and body and replacing it with a distant promised blissful enlightenment.
Receiving Diksha must be solving some issue of
humanity but I think that it must be also leaving some issues of a tender mind unresolved
and entangled. Despite all the razzmatazz created around the diksha of kids, I fail to feel the same frenzy.
The kids should be given a chance to grow a normal life at least till twenty or
twenty-five years of age.
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P.S: This
post is written with the angle of worldly wisdom so it can miserably fail on the touchstone
of spiritual yardsticks.
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