कभी सोचता हूँ के...
जो कोई लड़ता हीं नहीं
तो आकाश भी ज़ंज़ीरों में होती,
तो प्रकाश भी पहरों में होता, और
स्वास भी अंगारों से होकर गुज़रता I
कभी सोचता हूँ के...
जो कोई मरता हीं नही
तो नन्हे क़दमों से
ज़िंदगी कैसे दौड़ती
कोमल होठों पे
हँसी कैसे तैरती
और
मासूम आँखों में
आज़ाद उड़ान कैसे सोती I
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beautiful neeraj...keep writing
ReplyDeleteThanks a lot Deepshikha jee for appreciation of the post.
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (17-08-2019) को " समाई हुई हैं इसी जिन्दगी में " (चर्चा अंक- 3430) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
इस सम्मान के लिए बहुत आभार अनिता जी !
Deleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteधन्यवाद ओंकार जी !
Deleteबहुत बढ़िया अभिव्यक्ति, नीरज भाई।
ReplyDeleteधन्यवाद ज्योति जी !
Deleteऎसी रचनाएँ रोमांचित कर जाती हैं... एक अलग प्रकार का रोमांच होता है.
ReplyDeleteसराहना के लिए बहुत आभार संजय जी !
DeleteVery nice one.
ReplyDeleteThanks Jyotirmoy!
Deleteबहुत सुन्दर पंक्तियाँ नीरज
ReplyDeleteधन्यवाद सचिन !
DeleteSundar abhivyakti
ReplyDeleteThanks Sonal!
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