कुछ सोचा था, कुछ सिंचा था,
कुछ खींचा था, कुछ भींचा था I
सब कुछ ठीक था रातों में,
पर जाने क्या था बातों में I
सूरज की जगह शोला निकला,
भीड़ का एक रैला निकला I
जो आसमान में धुआँ उठा,
पता चला घर से निकला I
वो कहते थे की दंगा है,
भागो भागो
इंसान हुआ अभी नंगा है I
ये वही गली है, जहाँ मेरी दुकाँ थी,
ये वही गली है, जहाँ उसका मकान था I
अब तो,
कालिख है दीवारों पे,चेहरा ज़र्द पड़ा सा है,
आँखें बोझिल,कंधे झुके, गला ज़रा रुंधा सा है I
अब तो सब कुछ बिखरा है,
अब तो सब कुछ छितरा है,
जो कुछ पल पहले निखरा थाI
कुछ सोचा था, कुछ सिंचा था,
कुछ खींचा था ,कुछ भींचा था I
###
No comments:
Post a Comment