Wednesday, April 18, 2018

रेत का घर !



दरवाज़े पे नाम था अपना,
यही घर इनाम था अपना I

ना जाने कितने सपने थे इनमे,
ना जाने कितने अपने थे इनमे I

दीवारों पे छुटकी  की रंगाई थी,
रसोई में दुनिया की महँगाई थीI

आँगन में मुन्ने की किलकरी थी ,
बरामदे में कोयल की गुलुकारी थी I

दीवारों में लोहा सना था,
छत पर छप्पर प्यारी थी I

सब कुछ सही था,
सब कुछ यहीं था I

पर एक दिन एक हवा चली,
हमें लगा की सबा चली,

लेकिन वो तो आँधी थी,
ले उड़ी सब उम्मीदें जो ,
हमने बाँधी थी I

खाक हो गया वो जो सपना था ,
राख हो गया वो जो अपना था I

वो रेत का घर था जो ढह गया,
एक हवा चली सब बह गया I
              
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