दरवाज़े पे नाम था
अपना,
यही घर इनाम था अपना
I
ना जाने कितने सपने
थे इनमे,
ना जाने कितने अपने
थे इनमे I
दीवारों पे छुटकी की रंगाई थी,
रसोई में दुनिया की
महँगाई थीI
आँगन में मुन्ने की
किलकरी थी ,
बरामदे में कोयल की
गुलुकारी थी I
दीवारों में लोहा सना
था,
छत पर छप्पर प्यारी
थी I
सब कुछ सही था,
सब कुछ यहीं था I
पर एक दिन एक हवा चली,
हमें लगा की सबा चली,
लेकिन वो तो आँधी थी,
ले उड़ी सब उम्मीदें
जो ,
हमने बाँधी थी I
खाक हो गया वो जो सपना
था ,
राख हो गया वो जो अपना
था I
वो रेत का
घर था जो
ढह गया,
एक हवा चली
सब बह गया I
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