के जब देखता हूँ तेरे आँसू तो,
टूटता है मेरा हौसला,
टूटता है मेरे संबल I
टूटता है मेरे संबल I
कैसे कह दूँ...खुद को मुक़म्मल,
के जब पता हीं नहीं के अंबर,
के उपर कौन बैठा है?
के जब पता हीं नहीं के सूरज,
चंदा से क्यूँ रूठा है ?
कैसे कह दूँ ...खुद को मुक़म्मल,
के जब जनता हीं नहीं,
के क्यूँ कृष्ण के इंतेज़ार में,
राधा का प्यार बैठा है ?
के जब जानता हीं नहीं के क्यूँ,
राम के इंतेज़ार में हर अहिल्या
का प्रस्तर आकार बैठा है ?
कैसे कह दूँ... खुद को मुक़म्मल,
के जब देखता हूँ हर दिन,
क्षय होते फूलों का स्वास,
लूटता हुआ जीवन का हर प्रयास,
और मानव गति...दुर्गति पे रोता आकाश,
तो कैसे कह दूँ खुद को मुक़म्मल,
जब बैठा है, कोई मुझसे उपर,
जो हैं सबसे सबल, जो है सबसे अव्वल!
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बहुत अच्छी कविता है।
ReplyDeleteइस जँहा में मुक़म्मल कुछ भी नहीं।
क्योंकि कृष्ण के साथ राधा ,
सूरज के साथ चाँद का हीं नाम आता है।
बहुत आभार रेखा जी!
DeleteBeautiful views, loved it, the last line is so potential and true.
ReplyDeleteThanks Jyotirmoy for appreciating the post.
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता 👍 👍 नीरज
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार सचिन!
Deleteतो कैसे कह दूँ खुद को मुक़म्मल,
ReplyDeleteजब बैठा है, कोई मुझसे उपर,
जो हैं सबसे सबल, जो है सबसे अव्वल!
बहुत बढ़िया रचना,नीरज जी।
बहुत आभार ज्योति जी!
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