Monday, April 2, 2018

कुछ सोचा था, कुछ सिंचा था...

कुछ सोचा था, कुछ सिंचा था,
कुछ खींचा था, कुछ भींचा था I

सब कुछ ठीक था रातों में,
पर जाने क्या था बातों में I

सूरज की जगह शोला निकला,
भीड़ का एक रैला निकला I

जो आसमान में धुआँ उठा,
पता चला घर से निकला I

वो कहते थे की दंगा है,
भागो भागो
इंसान हुआ अभी नंगा है I

ये वही गली है, जहाँ मेरी दुकाँ थी,
ये वही गली है, जहाँ उसका मकान था I

अब तो,

कालिख है दीवारों पे,चेहरा ज़र्द पड़ा सा है,
आँखें बोझिल,कंधे झुके, गला ज़रा रुंधा सा है I

अब तो सब कुछ बिखरा है,
अब तो सब कुछ छितरा है,
जो कुछ पल पहले निखरा थाI

कुछ सोचा था, कुछ सिंचा था,
कुछ खींचा था ,कुछ भींचा था I
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